मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने शुक्रवार को दावा किया कि मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करना ‘‘कोई समाधान नहीं है’’ बल्कि राज्य में जारी जातीय हिंसा के लिए ‘‘लोकतांत्रिक जवाबदेही से बचने’’ का एक तरीका मात्र है। शर्मिला ने राज्य में शांति बहाल करने के लिए ‘‘ईमानदार राजनीतिक इच्छाशक्ति’’ की आवश्यकता पर जोर दिया और कहा कि नए चुनाव ‘‘वास्तविक बदलाव नहीं लाएंगे।’’
इरोम शर्मिला ने ‘पीटीआई’ के साथ टेलीफोन पर हुई बातचीत में सुझाव दिया कि मणिपुर के पूर्ववर्ती राजपरिवार के प्रमुख को वर्तमान राज्यपाल के समान शक्तियों के साथ एकता के प्रतीक के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए। शर्मिला ने कहा, ‘‘राष्ट्रपति शासन कोई समाधान नहीं है। मणिपुर के लोग कभी ऐसा नहीं चाहते थे। लेकिन अब जब यह वास्तविकता बन गई है, तो केंद्र को आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के लिए यथास्थिति बहाल करने को प्राथमिकता देनी चाहिए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उद्योगपति मित्रों से निवेश लाना चाहिए ताकि बुनियादी ढांचा और विकास उपलब्ध कराया जा सके। अतीत में जब राष्ट्रपति शासन लगाया गया था, तो वह लोकतांत्रिक जवाबदेही से बचने का एक और तरीका मात्र था।’’ उन्होंने मेइती, नगा और कुकी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाली तीन अंतर-राज्यीय लघु विधानसभाओं के गठन का प्रस्ताव रखा तथा तर्क दिया कि इस तरह के मॉडल से सभी जातीय समूहों के लिए उचित प्रतिनिधित्व और प्रत्यक्ष वित्त पोषण सुनिश्चित होगा।
उन्होंने कहा कि विभिन्न जातीय समूहों के मूल्यों, सिद्धांतों और प्रथाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। शर्मिला ने दावा किया, ‘‘भारत अपनी विविधता के लिए जाना जाता है और केंद्र को मणिपुर में भी इसे पहचानना चाहिए और अपनाना चाहिए।’’ उन्होंने सवाल किया कि अगर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में भी इसी तरह की जातीय हिंसा होती तो क्या केंद्र चुप रहता।