नई दिल्ली:जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी ने भारतीय निर्यात पर अमेरिकी टैरिफ के प्रभाव और देश भर में बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओं से हुई व्यापक तबाही पर गहरी चिंता व्यक्त की है। जमाअत मुख्यालय में मासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए जमाअत अध्यक्ष ने भारत के सामने मौजूद गंभीर आर्थिक और मानवीय चुनौतियों पर प्रकाश डाला और सरकार से तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह किया।
अमेरिकी टैरिफ पर सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी ने कहा, “भारतीय निर्यात पर 50 प्रतिशत तक शुल्कों में वृद्धि से श्रम-प्रधान क्षेत्र कमजोर हो रहे हैं। सूरत की हीरा-कटिंग इकाइयों, उत्तर प्रदेश के कालीन केन्द्रों और तिरुप्पुर के परिधान क्लस्टरों में काम करने वाले श्रमिकों को आजीविका के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। 2,500 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के कालीन गोदामों में फंसे हुए हैं और हजारों छोटे व्यवसाय ध्वस्त हो रहे हैं। अकेले वित्त वर्ष 2025 में 35,000 से अधिक एमएसएमई बंद हो गए। इससे संकट की गंभीरता का पता चलता है।” उन्होंने टैरिफ को अन्यायपूर्ण और संरक्षणवादी बताया तथा सरकार से दृढ़ कूटनीतिक और आर्थिक प्रतिक्रिया अपनाने का आग्रह किया। उन्होंने 25,000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज, ऋण और सब्सिडी के माध्यम से सहायता, तथा एमएसएमई नौकरियों की सुरक्षा और निर्यात बाजारों में विविधता लाने के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
हाल ही में आई बाढ़ का जिक्र करते हुए जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष ने कहा, ‘‘पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र के पूरे गांव बह गए हैं। किसानों की सैकड़ों करोड़ रुपये की फसल बर्बाद हो गई, परिवार विस्थापित हो गए और आवश्यक सेवाएं ध्वस्त हो गईं। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में भ्रष्टाचार ने इस आपदा को और बदतर बना दिया है। तटबंध पहले ही परीक्षण में विफल हो गए। जल निकासी व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो गईं। घटिया काम के कारण सड़कें और पुल टूट गए। भ्रष्टाचार ने प्राकृतिक आपदा को मानवीय त्रासदी में बदल दिया है।” उन्होंने किसानों के लिए कम से कम 50,000 रुपये प्रति एकड़ का उचित मुआवजा, देश भर में जल निकासी और बाढ़ नियंत्रण प्रणालियों का उन्नयन तथा सभी बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता की सख्त जांच की मांग की। उन्होंने पुनर्वास और दीर्घकालिक पुनर्निर्माण के लिए अप्रयुक्त धनराशि को मुक्त करने के लिए एक बाध्यकारी आपदा राहत कानून बनाने का भी आह्वान किया।
जमाअत अध्यक्ष ने ज़ोर देकर कहा कि दोनों ही मुद्दे शासन की गहरी विफलताओं को दर्शाते हैं। उन्होंने कहा कि आर्थिक न्याय और पारदर्शी शासन वैकल्पिक नहीं, बल्कि अनिवार्य हैं। उन्होंने कहा, “मज़दूर और किसान हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। उनकी दुर्दशा को नज़रअंदाज़ करने से लाखों लोग गरीबी के गर्त में चले जाएंगे। उनकी रक्षा करना कोई दान नहीं, बल्कि उनका अधिकार और राज्य का कर्तव्य है।”
मासिक प्रेस मीट को जमाअत के उपाध्यक्ष प्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने भी संबोधित किया। उन्होंने असम में चल रहे बेदखली अभियानों और 2020 के दिल्ली दंगों की साजिश मामले में हाल ही में ज़मानत को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले पर चिंता जताई।
असम के बारे में प्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने कहा, “पिछले तीन महीनों में गोलपाड़ा में 1,700 से अधिक परिवारों को जबरन विस्थापित किया गया है। उनमें से कई के पास वैध ज़मीन के दस्तावेज़, एनआरसी रिकॉर्ड और मतदाता पहचान पत्र थे। फिर भी उनके घर, स्कूल और मस्जिदें ध्वस्त कर दी गईं।पुलिस द्वारा निवासियों पर की गई गोलीबारी में एक युवक, सकोवर अली, की जान चली गई। यह अस्वीकार्य है। पुनर्वास के बिना बेदखली संविधान और अंतर्राष्ट्रीय मानवीय मानकों का उल्लंघन है।कुछ मामलों में, अदालती स्थगन आदेशों की भी अनदेखी की गई। बंगाली भाषी मुस्लिम समुदायों और आदिवासी समूहों को इस तरह चुनिंदा तरीके से निशाना बनाना गहरा अन्याय पैदा करता है और सांप्रदायिक व भाषाई तनाव को बढ़ावा देता है।” उन्होंने बेदखली अभियान को तत्काल रोकने, पुलिस गोलीबारी की स्वतंत्र जांच कराने तथा सभी विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की मांग की।
जमाअत उपाध्यक्ष ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2 सितंबर के फैसले पर भी टिप्पणी की, जिसमें उमर खालिद, शरजील इमाम और अन्य की जमानत खारिज कर दी गई थी।”ये कार्यकर्ता बिना किसी मुकदमे के लगभग पाँच साल से जेल में हैं। यह प्रक्रिया द्वारा सज़ा देने के समान है। ज़मानत तो सामान्य बात है। अदालत ने प्रथम दृष्टया सामग्री पर भरोसा किया और व्हाट्सएप ग्रुप की सदस्यता को षड्यंत्र माना। इससे निष्पक्षता और छात्र कार्यकर्ताओं तथा नागरिक समाज के सदस्यों के विरुद्ध यूएपीए के दुरुपयोग के बारे में गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यह चयनात्मक दृष्टिकोण न्याय प्रणाली में विश्वास को खत्म करता है।” उन्होंने कहा कि ऐसे निर्णयों से लोकतांत्रिक असहमति और अल्पसंख्यकों की आवाजों को दबाने का खतरा है, जबकि दंगों के असली अपराधी खुलेआम घूमते रहेंगे। प्रोफेसर सलीम इंजीनियर ने आशा व्यक्त करते हुए निष्कर्ष निकाला कि सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप करेगा, निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करेगा और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की रक्षा करेगा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत का लोकतंत्र कानून के समक्ष समानता, नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा और निष्पक्ष न्याय प्रणाली पर निर्भर करता है।